मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ: पाली, प्राकृत, शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश और उनकी विशेषताएँ
भारत की भाषाई धरोहर अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण है। आर्य भाषाओं का इतिहास, विशेष रूप से मध्यकालीन काल में, भारतीय समाज, संस्कृति, और साहित्यिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस लेख में, हम पाली, प्राकृत, शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश और उनकी विशेषताओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
1. पाली भाषा
पाली प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण भाषा है, जो मुख्यतः बौद्ध धर्म के ग्रंथों के लिए प्रयोग की जाती थी। यह भाषा भारतीय उपमहाद्वीप की धार्मिक और साहित्यिक धरोहर का एक अनिवार्य हिस्सा है।
उत्पत्ति:
पाली की उत्पत्ति प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं से मानी जाती है।
इसे संस्कृत का एक प्राचीन और सरल रूप माना जाता है, जो सामान्य जनता के संवाद के लिए उपयुक्त था।
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए पाली का उपयोग किया गया, जिससे यह पूरे दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रचलित हुई।
विकास:
पाली का विकास बौद्ध धर्म के साथ-साथ हुआ, और यह भाषा थेरवाद बौद्ध धर्म के ग्रंथों की आधारशिला बनी।
समय के साथ, यह भाषा श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, लाओस और कंबोडिया में बौद्ध धर्म के साथ फैल गई।
बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों ने इसे न केवल धर्मग्रंथों बल्कि व्याकरण और साहित्यिक रूप में भी समृद्ध किया।
अन्य भाषाओं पर प्रभाव:
पाली ने संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के बीच की कड़ी के रूप में कार्य किया।
यह आधुनिक भारतीय भाषाओं जैसे हिंदी, मराठी, और बंगाली के शब्द भंडार और व्याकरणिक संरचना को प्रभावित करती है।
दक्षिण-पूर्व एशियाई भाषाओं, जैसे थाई और सिंहली, ने भी पाली से कई शब्द और व्याकरणिक संरचनाएँ अपनाई हैं।
साहित्यिक योगदान:
पाली में त्रिपिटक, विनय पिटक, सुत्त पिटक, और अभिधम्म पिटक जैसे बौद्ध धर्म के प्रमुख ग्रंथ लिखे गए।
ये ग्रंथ नैतिकता, ध्यान, और आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार हैं और आज भी अध्ययन का केंद्र हैं। यह थेरवाद बौद्ध धर्म की पवित्र भाषा मानी जाती है।
विशेषताएँ:
धार्मिक महत्व: पाली में त्रिपिटक सहित बौद्ध धर्म के मुख्य ग्रंथ लिखे गए हैं।
सरल व्याकरण: पाली का व्याकरण अपेक्षाकृत सरल और प्राकृत भाषाओं से मिलता-जुलता है।
लोकप्रियता: यह भाषा श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, और अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा प्रचलित रही।
2. प्राकृत भाषाएँ
प्राकृत शब्द का अर्थ है "प्राकृतिक" या "आम जनता की भाषा।" यह संस्कृत से विकसित होकर विभिन्न रूपों में भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित रही।
प्रमुख प्रकार और भौगोलिक वितरण:
मागधी प्राकृत:
भौगोलिक क्षेत्र: यह मुख्यतः बिहार, झारखंड और बंगाल में प्रचलित थी।
विशेषता: बौद्ध धर्म के प्रारंभिक उपदेश इसी भाषा में दिए गए।
शौरसेनी प्राकृत:
भौगोलिक क्षेत्र: यह पश्चिमी और उत्तरी भारत, विशेषकर राजस्थान और मध्य प्रदेश में बोली जाती थी।
विशेषता: संस्कृत नाटकों में संवादों के लिए उपयोगी।
अर्धमागधी प्राकृत:
भौगोलिक क्षेत्र: मध्य भारत के मगध क्षेत्र में विकसित।
विशेषता: जैन ग्रंथों की मुख्य भाषा।
पैशाची प्राकृत:
भौगोलिक क्षेत्र: यह दक्कन और दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में प्रचलित थी।
विशेषता: इसे एक प्राचीन भाषा के रूप में माना जाता है जो महाकाव्यों और लोककथाओं में प्रयोग होती थी।
महास्थानी प्राकृत:
भौगोलिक क्षेत्र: यह पश्चिमी भारत के गुजरात और राजस्थान के क्षेत्रों में प्रचलित थी।
विशेषता: इसका उपयोग व्यावसायिक और सामाजिक संवाद के लिए होता था।
विशेषताएँ:
साधारण उपयोग: ये भाषाएँ आम जनता के संवाद का माध्यम थीं और संस्कृत की तुलना में अधिक सरल थीं।
साहित्यिक उपयोग: जैन और बौद्ध ग्रंथ मुख्यतः प्राकृत में लिखे गए।
आधुनिक प्रभाव: प्राकृत भाषाओं ने हिंदी, मराठी, गुजराती, और बंगाली जैसी भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह संस्कृत से विकसित हुई और विभिन्न रूपों में भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित रही।
मुख्य प्रकार: मागधी, शौरसेनी, अर्धमागधी और अन्य प्राचीन प्राकृत भाषाएँ।
3. शौरसेनी प्राकृत
शौरसेनी प्राकृत पश्चिमी भारत में प्रचलित थी और मुख्यतः नाटकीय और साहित्यिक भाषा के रूप में उपयोग में लाई जाती थी।
साहित्यिक योगदान:
शौरसेनी प्राकृत का उपयोग संस्कृत नाटकों, विशेषकर भास, कालिदास और शूद्रक जैसे नाटककारों के संवादों में किया गया।
इसके प्रसिद्ध उदाहरणों में “मृच्छकटिकम्” और “स्वप्नवासवदत्ता” जैसे नाटक शामिल हैं।
यह भाषा धार्मिक और सामाजिक विषयों को दर्शाने वाले ग्रंथों में भी प्रयुक्त हुई।
अन्य भाषाओं से संबंध:
शौरसेनी प्राकृत ने आधुनिक हिंदी, उर्दू और राजस्थानी जैसी भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यह भाषा संस्कृत से उत्पन्न हुई और प्राकृत के विभिन्न रूपों के साथ इसका घनिष्ठ संबंध रहा।
शौरसेनी के व्याकरण और शब्दावली ने बाद में आने वाली भाषाओं की संरचना और शब्द चयन को प्रभावित किया।
विशेषताएँ:
भौगोलिक क्षेत्र: यह मुख्यतः उत्तर भारत और राजस्थान के क्षेत्र में बोली जाती थी।
साहित्यिक योगदान: संस्कृत नाटकों में संवादों के लिए शौरसेनी प्राकृत का उपयोग किया गया।
विकास: यह भाषा आधुनिक हिंदी और राजस्थानी जैसी भाषाओं की जननी मानी जाती है।
4. अर्धमागधी प्राकृत
अर्धमागधी प्राकृत मध्य भारत की एक महत्वपूर्ण भाषा थी। यह मुख्यतः जैन आगम ग्रंथों की भाषा थी और बौद्ध धर्म के प्रचार में भी उपयोग की गई।
साहित्यिक उदाहरण:
अर्धमागधी में जैन धर्म के प्रमुख ग्रंथ, जैसे “आचारांग सूत्र” और “सूतकृतांग सूत्र” लिखे गए।
इस भाषा में लिखे गए ग्रंथ नैतिकता, धर्म, और साधना पर केंद्रित थे, जो समाज में नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित करते थे।
विकास में योगदान देने वाले कारक:
धार्मिक प्रभाव: जैन और बौद्ध धर्म के प्रसार ने इस भाषा के विकास को बढ़ावा दिया।
सामाजिक स्वीकार्यता: यह भाषा साधुओं और आम जनता के बीच संवाद का माध्यम बनी।
भौगोलिक स्थिति: मध्य भारत में स्थित मगध राज्य और उसके आसपास के क्षेत्रों ने इस भाषा के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सरल संरचना: इसकी सरल व्याकरण प्रणाली और बोलचाल के करीब शब्दावली ने इसे लोकप्रिय बनाया। यह जैन धर्म के ग्रंथों की मुख्य भाषा है।
विशेषताएँ:
धार्मिक उपयोग: जैन आगम ग्रंथ इसी भाषा में लिखे गए हैं।
संक्रमणकालीन भाषा: यह संस्कृत और प्राकृत के बीच की एक कड़ी मानी जाती है।
सरलता: व्याकरण और शब्दावली में सरलता और स्पष्टता।
5. मागधी प्राकृत
मागधी प्राकृत पूर्वी भारत में प्रचलित थी। यह बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायियों के बीच अत्यंत लोकप्रिय थी।
विशेषताएँ:
भौगोलिक क्षेत्र: वर्तमान बिहार, झारखंड और बंगाल के क्षेत्रों में प्रचलित।
धार्मिक महत्व: बौद्ध धर्म के प्रारंभिक उपदेश मागधी में ही दिए गए थे।
आधुनिक प्रभाव: यह आधुनिक बंगाली, असमिया और ओड़िया भाषाओं की जननी मानी जाती है।
6. अपभ्रंश भाषाएँ
अपभ्रंश का अर्थ है "विकृत" या "बदलाव"। ये संस्कृत और प्राकृत के बीच की संक्रमणकालीन भाषाएँ थीं।
विशेषताएँ:
विभिन्न किस्में: अपभ्रंश भाषाओं की कई किस्में थीं, जैसे पश्चिमी अपभ्रंश, मध्य अपभ्रंश, और पूर्वी अपभ्रंश। ये क्षेत्रीय विविधताओं और स्थानीय बोलियों से प्रभावित थीं।
साहित्यिक योगदान: अपभ्रंश में कई काव्य रचनाएँ, जैसे कीर्ति कौमुदी और कविराज हेमचंद्र की रचनाएँ, अत्यधिक लोकप्रिय हैं। ये रचनाएँ धार्मिक, नैतिक और सामाजिक विषयों को दर्शाती हैं।
धार्मिक उपयोग: जैन और बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने अपने धार्मिक ग्रंथों के लिए अपभ्रंश भाषाओं का उपयोग किया।
आधुनिक भाषाओं का आधार: अपभ्रंश ने हिंदी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, और बंगाली जैसी आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास की नींव रखी।
अपभ्रंश भाषाएँ भारतीय समाज में सांस्कृतिक और भाषाई परिवर्तन को समझने का एक महत्वपूर्ण माध्यम हैं। ये भाषाएँ संस्कृत और प्राकृत के बीच की संक्रमणकालीन भाषाएँ थीं।
विशेषताएँ:
लोकप्रियता: अपभ्रंश भाषाएँ मध्यकालीन भारत में साहित्यिक अभिव्यक्ति का मुख्य माध्यम थीं।
काव्य: कई प्रसिद्ध कवियों, जैसे कि हेमचंद्र और विद्दापति, ने अपभ्रंश में रचनाएँ कीं।
आधुनिक भाषाओं की नींव: अपभ्रंश से हिंदी, मराठी, गुजराती, और पंजाबी जैसी आधुनिक भाषाएँ विकसित हुईं।
इन भाषाओं का आपसी संबंध
ये सभी भाषाएँ संस्कृत से विकसित हुईं और समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा प्रयोग की जाती थीं।
संस्कृत, जो मुख्यतः धर्म और विद्वानों की भाषा थी, ने इन भाषाओं के विकास को आधार प्रदान किया।
प्राकृत भाषाएँ, जो आम जनता की भाषा थीं, ने संस्कृत के प्रभाव को सरल और व्यावहारिक रूप में ढाला।
अपभ्रंश भाषाएँ इन प्राकृत भाषाओं से विकसित हुईं और क्षेत्रीय भाषाओं, जैसे हिंदी, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि, के लिए नींव का काम किया।
इन भाषाओं के साहित्य और धार्मिक ग्रंथों ने सामाजिक संरचना और क्षेत्रीय एकता को मजबूत किया।
प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं ने क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इन भाषाओं का साहित्यिक और धार्मिक योगदान भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करता है।
निष्कर्ष
पाली, प्राकृत, शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी और अपभ्रंश भाषाएँ भारतीय भाषाई इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। इन भाषाओं ने न केवल भारतीय साहित्य और धर्म को समृद्ध किया, बल्कि आधुनिक भारतीय भाषाओं की नींव भी रखी। इनकी गहन समझ हमें भारत की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को समझने में मदद करती है।
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